उत्तराखंड में लगातार सूख रहे प्राकृतिक जलस्रोत

देहरादून। अनियंत्रित विकास कार्यों का प्रभाव भूमिगत जल पर पड़ रहा है। पिछले 30 से 40 सालों में उत्तराखंड में करीब एक लाख प्राकृतिक जल स्रोत सूखने के कगार पर पहुंच गए हैं। प्राकृतिक जल स्रोतों के संरक्षण के लिए समुदाय पर आधारित जल स्रोत प्रबंधन केंद्र बनाए जाने की आवश्यकता है। इन प्रबंधन केंद्रों पर स्थानीय पंचायतों की भूमिका भी सुनिश्चित की जानी चाहिए। उत्तराखंड की सदानीरा नदियों में 65 फीसदी जल प्राकृतिक स्रोतों का है। लेकिन बारिश की अनियमितता व अनियंत्रित विकास निर्माण कार्य भूमिगत जल को प्रभावित कर रहे हैं। सड़क व सुरंगों के निर्माण से जलभृत क्षतिग्रस्त हो रहे हैं। जिससे प्राकृतिक स्रोत सूख रहे हैं या सूखने के कगार पर पहुंच रहे हैं। विशेषज्ञों के अनुसार 30 से 40 सालों में उत्तराखंड में कई प्राकृतिक जल स्रोत सूखे हैं और कुछ सूखने के कगार पर पहुंच गए हैं। जल जीवन की निरंतरता का महत्वपूर्ण संसाधन है जो आज हर जगह संकट में है। प्रदेश में करीब 18000 जलस्रोत जलवायु परिवर्तन और अन्य कारणों से सूख चुके हैं। उत्तराखंड अपनी भौगोलिक पृष्ठभूमि के कारण देश का सबसे समृद्ध जल संसाधनों वाला प्रदेश है। बावजूद प्रदेश के दूरस्थ स्थानों पर जलस्रोतों के सूखने से पलायन आम हो गया है। पवित्र गंगा नदी का उद्गम स्थल भी उत्तराखंड में है। इसके अलावा धौलागिरि, मंदाकिनी, पिंडर, भागीरथी, अलकनंदा, कोसी, रामगंगा जैसी अन्य सैकड़ों छोटी-बड़ी नदियां भी उत्तराखंड से ही निकलती हैं जो देश की आर्थिकी व अन्य दैनिक जरूरतों में अपना विशेष योगदान देती है। प्रदेश में 90 प्रतिशत जलापूर्ति इन्हीं संसाधनों से होती है बावजूद प्रदेश में जल संकट गहराता जा रहा है। उत्तराखंड में करीब 2.6 लाख प्राकृतिक जलस्रोत हैं, इनमें से करीब 18000 जलस्रोत जलवायु परिवर्तन और अन्य कारणों से सूख चुके हैं। राजमार्गों के निर्माण की तेज रफ्तार ने भी जलस्रोतों की अविरल रफ्तार पर ब्रेक लगाया है। आलम यह कि ये जलस्रोत अपने मूल स्वरूप व दिशा खोकर अस्तित्व विहीन हो गए हैं। इनका स्थान अब नलकूपों ने ले लिया है, जिससे इस क्षेत्र में भू-गर्भीय जल का दोहन तेजी से बढ़ गया है। यदि इनके पुनरोद्धार पर फोकस नहीं किया तो तराई के यह जलस्रोत जल्द दम तोड़ देंगे। भू-गर्भीय प्राकृतिक दबाव के चलते पानी का जलभृत (एक्विफर) बहुत ऊपर आ जाता है, जिससे पानी बारहमासी कम बोर पर ही प्राकृृतिक रूप से बाहर निकलता रहता है, जिसे आर्टिजन वेल कहा जाता है। इस आर्टिजन वेल की जल गुणवत्ता व गति में भी गिरावट आ रही है। इसका कारण मानवीय हस्तक्षेप व जलस्रोतों के सूखने से भू-गर्भीय जलस्तर का नीचे गिरना है। पहाड़ों से निकलने वाले जल स्रोत छोटी-छोटी नदियां गायब हो रही हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार और सिस्टम को इसकी जानकारी नहीं है, लेकिन इस दिशा में कोई कारगर कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। इन सब के पीछे वजह जो भी हो, लेकिन इन हालातों की बड़ी वजह इंसान ही हैं। कुछ समय पहले तक जल स्रोतों को गांव के लोग देवता की तरह पूजते थे। साल में कई बार गांव इकट्ठा होकर इन नौले धारों और जल स्रोतों को संजोकर रखते थे, लेकिन आलम यह है कि धीरे-धीरे यह जल स्रोत आबादी वाले इलाकों में सूखने लगे हैं। जल स्रोत प्रबंधन कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि कई ऐसे गांव हैं जो जल संकट से जूझ रहे हैं। रिपोर्ट यह भी बताती है कि कई ऐसे जल स्रोत हैं, जो अब सूखने की कगार पर आ गए हैं। राज्य में सबसे अधिक जल संकट, टिहरी, पिथौरागढ़, चमोली, अल्मोड़ा, और बागेश्वर जिले में है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ प्राकृतिक जल स्रोत कम हो रहे हैं। केंद्रीय जलशक्ति मंत्रालय की मानें तो राज्य में 725 ऐसे जलाशय हैं, जो पूरी तरह से सूख चुके हैं। उत्तराखंड में 3096 जलाशय हैं, जिसमें 2970 जलाशय ग्रामीण क्षेत्र में है, जबकि 126 जलाशय शहरी क्षेत्र में हैं। रिपोर्ट कहती है कि 2371 जलाशय में ही में पानी पाया गया था, जबकि 725 जल से पूरी तरह से सूख चुके हैं, जिसकी वजह मंत्रालय ने प्रदूषण फैक्ट्री और तालाबों के ऊपर बस्तियों को बताया था।

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